वो पहाड़ी पथ आज भी,
तटस्थ होगा, जिधर-
मेरे और तुम्हारे कदम चले थे कभी।
हाँ हमारे रिश्तों की हत्या हो गई-
जैसे “भ्रूणहत्या” करते हैं लोग।
नहीं जानती थी कि, वो
पथ “अंतिमविदा पथ” होगा।
सुनो! याद है.... ठंड से ठिठुरती मैं,
और मूक चट्टान पर चिपका पसरा पाला,
मैंने बर्फ समझा था उसे...
अंतर तो तुमने समझाया था........
पाले और बर्फ का.....
मेरे ख़ुश्क हाथो में आते ही, ना जाने क्यूँ?
वो पाला पिघल गया,या दम तोड़ दिया उसने!
क्या मेरे हाथो से ही मिलनी थी उसे मुक्ति?
फिर तुम्हारी “झिझक” को
क्यूँ ना मुक्त करा पाई मैं-
और ना तुम्हारे हाथों को स्पर्श कर पाई मैं।
क्या कॉफी के प्याले का झाग था हमारा प्रेम?
जिसका ‘प्रारब्ध’ बस मिट जाना था.....
तुम्हारे बगल में बैठे-बैठे बस मैं
तुम्हारी ठंडी आहें महसूस कर पाई.........
लेकिन अपनी गर्म साँसों का आलिंगन
तुम्हारी साँसो से तनिक न कर पाई।
ना जाने काल का षड्यंत्र था,
या समय ने जानबूझ कर दिया
हमारे रिश्ते का “सिजेरियन” !
जिसमें हमारे रिश्ते ने ही दम तोड़ा.....
हाँ- ये बात अलग है कि हमारी,
आत्माएँ आज भी भटक रही हैं!
वही तटस्थ पहाड़ी पथ पर,
जो हमारी अंतिम विदास्थली था।