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Saturday 31 January 2015

कलयुग के केशव

"कलयुगी केशव"

बिछ गई गई है प्रेम गली में चौपड़
अरावली की तप्त कठोर श्रृंखलाओं
के सामने.......
तुम आज शकुनि से लगे
प्रेम की सत्ता के लिए
लज्जित हुई होंगी इसी गलियारे में
तमाम द्रौपदी!
और तुम्हारे पाखंड के बीच
होंठो पर खंड खंड हुई होगी
तुम्हारी कुटिल मुस्कान।

भोग के थाल में
और जूठन के ढेर में
चयन किया तुमने जूठन का!
पर "धीत" थी की संतुष्ट ना हुई।
देखो उगती थी जहाँ प्रेम की सरसों
वहां फूटे इस बरस मातम के अंकुर!
और तुम अपनी दर्द भरी तमाम
फैंटेसी के साथ
रुठने का बहाना करके
चौपड़ को अपने बस्ते में समेट
निकल पड़ोगे दूसरी द्रौपदी की खोज में।

क्योंकि तुम वाकिफ हो
ये कलयुग की सरकार है
जहाँ के राजा तुम हो।
तुम्हारा नाम "केशव" है
और अब तुम बचाते नहीं
दर्द के चश्मे में डूबा देते हो।
तो बिछाओ चौपड़
द्रौपदी तुम्हारी राह में है......
सोनिया गौड़

Friday 23 January 2015

कल आज और कल

मेरा अस्तित्व जीवित है
अतीत के लिए,
वर्तमान और भविश्व
दबे पड़े हैं फासिल्स जैसे
जीवन की गहराइयों में
और मैं नितांत एकांत
तीनो कालों में फंसी
खुद को धकेलती दर्द की तन्हाइयों में।

वर्तमान सन्नाटों से भरा।
बेरंग सन्नाटें!
सन्नाटों की सत्ता बड़ी निरंकुश है।
अतीत सौम्य है बड़ा
"बर्फ की तरह"
ज़ेहन में आते ही पिघलने लगता है।
और निरंकुश वर्तमान
ग्रेनाइट की तरह कठोर हो जाता है।
यहीं से जीवित होता है मेरा अतीत!

सन्नाटें की हकीकत में
उसी चट्टान में सडा-गला सा भविश्व मेरा,
मृतप्राय!
सम्भवानाएं बेदम पड़ी हैं
सीपियों की तरह।
जिसे झटका था
समुद्री लहरों ने उदर से।
एक जीवन समाप्त हो रहा है
और अतीत जीवित हो उठा है
क्योंकि वर्तमान और भविश्व
दबे पड़े हैं फासिल्स की तरह.......
सन्नाटों और सड़ांध के बीच में।
Soniya gaur

Wednesday 21 January 2015

अंतिम पलों में

अंतिम पलों में
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साँझ के पिघलते ही
काले मोम के बुत सी
खड़ी होती ये रात।
और तारों की तरह टिमटिमाती मेरी आँख।
और मेरी देह को
सहलाती ये नर्म हवा,
और पुराने पुर्ज़ों की  तरह
फड़फाड़ती तुम्हारी याद!
ये सब अचानक नहीं
सतत होता है।
तन्हाई के रास्ते
लंबे होते चले जाते हैं
रिश्ते खत्म नहीं होते
उनकी हत्या कर दी जाती है,
या वो छूट जाते हैं
जैसे ट्रेन छूट जाती हैं प्लेटफॉर्म से!
तुमसे मिलना ही दुर्भाग्य!
तुम्हारी छोटी-छोटी आँखों से प्रेम,
अपयश का सफ़र,
ख्वाबों के पंखों से उड़ान भरना और
पंखों का अलगाव के तूफां से
यकायक टूट जाना।
सब हादसों की रणनीतियां थी,
जिनको पारंगत किया था "शकुनि "ने
देखो! रात गल रही है
भोर खिल रही है-
लेकिन डूब चुकी अब
अपयश भरी बातें
प्रेम के ख्वाब
आतुर क्लांत यादें,
क्योंकि अब बुझ रही हैं मेरी आँखें।
Soniya Gaur