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Thursday 28 September 2017

बेशर्म पत्नियां

रात की तन्हाइयों से भी डरावना था
भरोसा टूटना।

नाली के कीचड़ से ज्यादा घिनौना
अपमान की बारिश के छींटे पड़ना था

प्रेम से  थोड़ा ज्यादा बेशर्म थी
नदी सी देह!

पृथ्वी से भारी  उसकी दो आंखें
दो बहरूपिया संसार थे जिसमें।

घिनौने संसार को पार करके
देखने भर को ही मिल पाता था बेशर्म प्रेम का संसार!

नदी वास्तव में ज्यादा बेशर्म है
या फिर पत्नियां!

Tuesday 5 September 2017

जूता

जूता
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लौट जाना चाहती हूँ माँ के पास
फिर से वहीं अपने पुराने मकान में
कमरे के कोने में रखा जूता  बोलता है रुको!
तुम्हारा सृजन प्रेम के लिए हुआ है...

तुमको भूरी आँखों वाले बिलौटे से डरना नहीं   बस कबूतर की तरह आँखें बंद कर लेना भींच कर

मत समेटना इस देह को.... बिखरे रहने देना
बस यही बिखरापन पसंद आएगा  उसे,
देह बिखरे सामान से ज्यादा बेहतर नजर आती है, बिखरी हुई।

कैसा  यह  सृजन?
सोचती हूँ  और कमरे के कोने में पड़ा जूता किसका ?
शायद मेरे प्रेमी का होगा।
मैं खुद उत्तर देती हूँ।

मैं  नही लौट सकती माँ के पास
उनका सृजन भी प्रेम के लिए हुआ होगा.
और उनके कमरे में भी एक बोलने वाला जूता रखा होगा।
सोनिया
#औरतें

Monday 4 September 2017

पलायन

गूंगे खेतों के बीच
तुम्हारा मिलना
एकांत की उम्र पार करना रहा।
बिच्छू घास का जहर
उतार लिया मैंने
जो चढ़ा था तुम्हारे होंठो से शरीर पर!

गोलियों से छलनी अकेलेपन के घायल सिपाही
तुमसे मिलने के बाद जाना
तुम बहुत बेसुरे हो
तुमको पसन्द है मिलन के गीत
जो बजते हैं मेरे कमरे में।
एक कमरा तुमको और पसन्द है
जिसकी मालकिन
खारे पानी के बीच बड़ी बड़ी आँखों  वाली
लिख रही है स्त्रीवादी कहानियां!

ओह्ह तुम मेरा प्रेम नही मन मे दबी
अभिशप्त इच्छा हो
तुम कहानियां सुनो
मैं सुनूँगी तुम्हारे हिस्से के गीत
दर्द अब मेरा सहयात्री है
मेरे होठों पर ही भी धँसे है बिच्छू घास के डंक
जो चुभे थे तुम्हारा दंश निकालने में
एकांत यूँ नहीं मरेगा वह अमर है

कुछ गोलियां मुझे भी लगी हैं
नई भर्ती है सिपाही के तौर पर मेरी
पहाड़ी सीमाओं पर।
लटकी है जहाँ तख़्ती, पलायन की।

#औरतें
Soniya Bahukhandi

Friday 1 September 2017

भूलना सबसे बुरी आदत

तुमने कहा रात समेटो
आधी समेट पाई भूल गई
खुद को समेटने लगी!

भूलने की आदत मेरी
दुनिया की सबसे बुरी बात है!

घर बिखरा है सजा देना
सबसे ज्यादा बिखरी हुई मैं थी
मैं बिस्तर सजाने लगी

एक बड़ी आपदा के बाद खिली धूप
तमाम गीले कपड़े सुखा देना तुम बोले
मै दर्द सुखाती रही।

मैं हटा देना चाहती थी
दिल मे शासन करने वाले निरंकुश को
लेकिन भूल गई।

मेरा भूलना जीवन का ज़ख्म है
मैं उस पर पपड़ी जमाना भूल गई हूं
पर तुम मुझे पूरा याद हो
इतनी भी भुलक्कड़ नही।

Soniya Bahukhandi
#औरतें